सांझ और सवेरा
साँझ से सवेरा दूर तो नहीं
पर रास्ता धुंधला - धुंधला सा है
वो पहली किरण पत्तों से गुज़रती हुई
मुझे उसे छूने का इंतज़ार है
मेरे कल आज और कल को बांधे एक डोर
मेरे डर, मेरी कमियाँ, मेरी सोच
मेरा कल ही मेरी साँझ है और कल ही मेरी भोर
चलती हुई आज से, सोचती हूँ मैं ये
कैसे खोलूँ ये उलझी गांठें, कैसे तोड़ूँ ये डोर
उम्मीद मेरी वो किरणें
बढ़ती उनकी ओर
अब कमियाँ कम लगने लगी हैं
डर से डर नहीं लगता
और सोच,
सोच ये सोचने को मजबूर करती है,
की अगर डर जाती, रुक जाती, तो क्या होता
अंधेरा मुझे घेर, रात में क़ैद कर जाता
इसी ख़्याल के डर से हिम्मत बटोरे
धुंधली राहों में कदम बढ़ते हैं
शायद उजाला भी मेरी राहें देख रहा हो
आख़िर
मेरी साँझ से मेरा सवेरा दूर तो नहीं...
Author
Kashvi Sachdeva
Second Year, History Hons. Student
Kirori Mal College, University of Delhi
Kirori Mal College, University of Delhi
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